Tuesday 21 October, 2008

सागर के पत्र कविता के नाम


मेरी
ज़िन्दगी चाहे हम भौतिक रूप से एक-दूसरे से दूर चले जाएं, मगर एक अहसास के रूप में तुम हमेशा मेरे पास, मेरे साथ रहोगी। मेरी हर नई कविता में तुम्हारा चेहरा होगा, मेरी हर कहानी में तुम्हारी याद होगी, मेरे हर शब्द में तुम्हारा ख्याल छुपा होगा। तुम्हारी याद हर रात सपना बनकर मेरे साथ रहेगी और हर सुबह जीने का एक नया उत्साह बनकर मेरे मन में इंतज़ार का चिराग जलाती रहेगी। तुम्हारे इंतज़ार का चिराग मैं कभी बुझने नहीं दूँगा। वह रोशन रहेगा, हर पल, हर वर्ष और हर जन्म में।
तुमसे मैं और कुछ न चाहूँगा, पर इतना अवश्य कि कभी मेरी याद को अपने दिल से मिटने न देना। विरह के पलों में यही अहसास तो मुझे जीवन देगा कि चाहे हम दूर सही, मगर तुम मुझे चाहती हो, मुझे प्यार करती हो।
कभी मेरी याद में तुम्हारी आँखों में यदि आँसू की कोई बूंद छलछलाई तो तुम महसूस करोगी कि तुम्हारी पलक पर अपने अधर धरे मैं आँसू की उस बूंद को चूम रहा हूँ। और यह अहसास तुम्हें याद दिलाएगा कि हमारा मन से मन का बंधन अमर है।.........सागर

मेरी कविता,

तुम तक मेरे प्यार की रोशनी से भरी याद पहुँचे। रात सपने में रोशनी का शहजादा चांद अपने अंगरक्षक तारों के संग आया और बोला, गुस्ताख़ दिवाने, तुमने हमारी तुलना अपने महबूब से करने की गुस्ताख़ी की है इसलिए तुम्हें इस जुर्म की सजा मिलेगी। मैंने पूछा, क्या सजा मिलेगी? तो वह बोला, हम तुम्हारी ज़िन्दगी में अब कभी भी रोशनी नहीं करेंगे। मैंने कहा, ऐ रोशनी के शहजादे, यूँ अपने आप पर गुमान न करो। जाओ मुझे भी तुम्हारी जरूरत नहीं है। मेरे महबूब की यादों की रोशनी जब तक मेरी ज़िन्दगी में है, मुझे किसी और रोशनी की जरूरत ही नहीं है।
मेरी ज़िन्दगी की रोशनी, कब तक तुम साथ रहोगी? चांद की तरह चाहे दूर से ही मेरी ज़िन्दगी को रोशनी का सहारा देती रहना, मगर नज़रों के सामने रहना। चांद के समान कभी परिस्थितियों के बादलों में छुप न जाना।
आजकल एक तारे की तरह मैं अपने चांद को दूसर से देखता हूँ और मुस्कराता हूँ। आँसू बहाने या दुःख मनाने का हक तो तुमने मुझसे ले ही लिया है प्यार में। अब मैं तुम्हारी याद में अपने-आप को डूबो देना चाहता हूं।
आज एक बात मन में आई कवि कि भक्ति और प्यार में कोई खास अंतर नहीं है। अपने आराध्य की धुन में अपने अस्तित्व को भुला देना, यही तो मंज़िल है प्यार की और भक्ति की भी। इसीलिए तो मैं तुम्हें अपना ख़ुदा मानता हूँ। जिसकी इबादत में मैं हमेशा डुबा रहता हूँ।
और ख़ुदा को पाना कभी आसान हुआ है? बावजूद इसके कि हर आदमी में छुपा रहता है वह। तुम्हें पाना भी मुश्किल है मेरे ख़ुदा, मेरी मुहब्बत के ख़ुदा। बावजूद इसके कि तुम मेरे दिल में हो, दिल की धड़कनों में हो, हर साँस में हो।.......सागर


अमृता प्रीतम और इमरोज़ के पत्र


....तुम मुझे उस जादुओं से भरी वादी में बुला रहे हो जहाँ मेरी उम्र लौटकर नहीं आती। उम्र दिल का साथ नहीं दे रही है। दिल उसी जगह पर ठहर गया है, जहाँ ठहरने का तुमने उसे इशारा किया था। सच, उसके पैर वहाँ रूके हुए हैं। पर आजकल मुझे लगता है, एक-एक दिन में कई-कई बरस बीते जा रहे हैं, और अपनी उम्र के इतने बरसों का बोझ मुझसे सहन नहीं हो रहा है.....अमृता

.......यह मेरा उम्र का ख़त व्यर्थ हो गया। हमारे दिल ने महबूब का जो पता लिखा था, वह हमारी किस्मत से पढ़ा न गया।.......तुम्हारे नये सपनों का महल बनाने के लिए अगर मुझे अपनी जिंदगी खंडहर भी बनानी पड़े तो मुझे एतराज नहीं होगा।......जो चार दिन जिंदगी के दिए हैं, उनमें से दो की जगह तीन आरजू में गुजर गए और बाकी एक दिन सिर्फ इन्तजार में ही न गुजर जाए। अनहोनी को होनी बना लो मिर्जा।..... .अमृता


तुम्हारा ख़त मिला। जीती दोस्त। मैं तुमसे गुस्से नहीं हूँ। तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छू गया। दोस्ती मुहब्बत की हद तक गई। मुहब्बत इश्क की हद तक। और इश्क जनून की हद तक। और जिसने यह जनून की हद देखी हो, वह कभी गुस्से नहीं हो सकता। अगर यह अलगाव कोई सजा है तो यह सजा मेरे लिए है, क्योंकि यह रास्ता मेरा चुना हुआ नहीं है। मेरा चुना हुआ रास्ता मेल था। अलगाव का यह रास्ता तुम्हारा चुना हुआ है, तुम्हारा अपना चुनाव, इसलिए तुम्हारे लिए यह सजा नहीं है...........अमृता

मेरे अच्छे जीती, आज मेरे कहने से, अभी, अपने सोने के कमरे में जाना, रेडियोग्राम चलाना और बर्मन की आवाज सुनना- सुन मेरे बंधु रे। सुन मेरे मितवा। सुन मेरे साथी रे। और मुझे बताना, वे लोग कैसे होते हैं, जिन्हें कोई इस तरह आवाज देता है। मैं सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही, पर यह मैं जानती हूँ - मैं वह नहीं हूँ जिसे कोई इस तरह आवाज दे। और मैं यह भी जानती हूँ, मेरी आवाज का कोई जवाब नहीं आएगा। कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी। पर मुझे तुम्हारे मन की कॉन्फ्लिक्ट का भी पता है। यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ, फिर भी मेरी उम्र और मेरे बन्धन तुम्हारा कॉन्फ्लिक्ट हैं। तुम्हारा मुँह देखा, तुम्हारे बोल सुने तो मेरी भटकन खत्म हो गई। पर आज तुम्हारा मुँह इनकारी है, तुम्हारे बोल इनकारी हैं। क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है। तुम्हारे पैरों की आहट सुनकर मैंने जिंदगी से कहा था- अभी दरवाजा बन्द नहीं करो हयात। रेगिस्तान से किसी के कदमों की आवाज आ रही है। पर आज मुझे तुम्हारे पैरों का आवाज सुनाई नहीं दे रही है। अब जिंदगी को क्या कहूँ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाजे बन्द कर ले......। ....अमृता


....मेरे सारे रास्ते कठिन हैं। तुम्हें भी जिस रास्ते पर मिला, सारे का सारा कठिन है, पर यही मेरा रास्ता है।.....मुझ पर और भरोसा करो, मेरे अपनत्व पर पूरा एतबार करो। जीने की हद तक तुम्हारा, तुम्हारे जीवन का जामिन, तुम्हारा जीती।....ये अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य का पल्ला तुम्हारे आगे फैलाता हूँ, इसमें अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को डाल दो।.....इमरोज़

Monday 20 October, 2008

इब्तिदा.....

जब सृष्टि के प्रारंभ में जन्मा था प्रेम.....गुलाबी था वह.....एक रंगा।
शब्दों ने उसमें भरे रंग।तरह-तरह के।
और हो गया वह सतरंगा।
और इस सतरंगे प्रेम का जो बना एक इंद्रधनुष.........प्रेमपत्र मिला उसे नाम।
यही इंद्रधनुष बना प्यार करने वाले दिलों का सबसे बड़ा सहारा।
यदि न होते प्यार में डूबे ख़त.........तो कितनी सूनी-सूनी होती ज़िन्दगी।
उस प्यार को सलाम।
उस प्यार में डूबे ख़तों को सलाम।
प्यार में डूबे ख़तों से भरी ज़िन्दगी को सलाम।

और

हर कहानी सुखान्त तो नहीं होती।
ऐसा भी वक्त आता है जब प्यार नहीं रहता साथ।
सिर्फ यादें रह जाती हैं।
सिर्फ चन्द ख़त रह जाते हैं।
किसी की खुशबू में बसे हुए ख़त।
किसी पल हाथ उठते हैं उन ख़तों को जलाने के लिए।
मगर फिर थम जाते हैं।
तेरी खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे?प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे?
तेरे और मेरे हाथों से लिखे ख़त मैं जलाता कैसे?
उन ख़तों को गंगा में बहाता कैसे?
सो उन्हें बहा रहा हूँ अन्तर्जाल के इस महासागर में।
बन जाएंगे शायद ये मोती।और लग जाएंगे कभी किसी दिवाने के हाथ।
जब इन ख़तों में अपनी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति पाएगा वह दिवाना....तो यह बेचैन दिल भी पा लेगा थोड़ा सुकून।