Monday 20 October, 2008

इब्तिदा.....

जब सृष्टि के प्रारंभ में जन्मा था प्रेम.....गुलाबी था वह.....एक रंगा।
शब्दों ने उसमें भरे रंग।तरह-तरह के।
और हो गया वह सतरंगा।
और इस सतरंगे प्रेम का जो बना एक इंद्रधनुष.........प्रेमपत्र मिला उसे नाम।
यही इंद्रधनुष बना प्यार करने वाले दिलों का सबसे बड़ा सहारा।
यदि न होते प्यार में डूबे ख़त.........तो कितनी सूनी-सूनी होती ज़िन्दगी।
उस प्यार को सलाम।
उस प्यार में डूबे ख़तों को सलाम।
प्यार में डूबे ख़तों से भरी ज़िन्दगी को सलाम।

और

हर कहानी सुखान्त तो नहीं होती।
ऐसा भी वक्त आता है जब प्यार नहीं रहता साथ।
सिर्फ यादें रह जाती हैं।
सिर्फ चन्द ख़त रह जाते हैं।
किसी की खुशबू में बसे हुए ख़त।
किसी पल हाथ उठते हैं उन ख़तों को जलाने के लिए।
मगर फिर थम जाते हैं।
तेरी खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे?प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे?
तेरे और मेरे हाथों से लिखे ख़त मैं जलाता कैसे?
उन ख़तों को गंगा में बहाता कैसे?
सो उन्हें बहा रहा हूँ अन्तर्जाल के इस महासागर में।
बन जाएंगे शायद ये मोती।और लग जाएंगे कभी किसी दिवाने के हाथ।
जब इन ख़तों में अपनी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति पाएगा वह दिवाना....तो यह बेचैन दिल भी पा लेगा थोड़ा सुकून।

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